Sunday, October 5, 2008

मुखौटा


बचपन में पढ़ा एक पाठ,
पन्ने थे उसमे आठ,
नाम था हँसी का मुखौटा,
और था बढ़ा ही चटपटा।
समझ रहे थे कहानी को व्यंगात्मक,
इंतज़ार न किया गया क्लास में पढ़ने तक,
हमे पढ़ी सच्चाई की भनक,
कहानी निकली सम्वेद्नाजनक।

उस दिन से मुखौटो में आ गई हमे रूचि,
और बनने लगे मानविक भाव मुखौटो की सूचि,
बिना गवाए एक भी श्रण,
करने लगे लोगो का परिक्ष्रण।

एक थे गर्णीत के अध्यापक,
करना पसंद था उन्हें बक बक,
कर लो गलती छोटी बड़ी,
लगाते थे ज़ोर से छड़ी.
गुना को भाग,भाग को गुना करते,
कुछ न आता तो भी अकरते,
हम समझ गए छुपाने को अपनी अज्ञानता,
पेहेनते थे वे गुस्से का मुखौटा।

अब आई विज्ञान की अद्यापिका,
अपने विषय की थी वो ज्ञाता,
उनका प्यार हमे कक्षा के ओर खींचता,
हर बच्चा उनका गृह कार्य कर लाता।
हुआ जो कक्षा समाप्त एक बार,
करने लगी वो पहचानने से भी इनकार,
निकालने के लिए अपना काम,
प्यार का मुखौटा पेहेंती थी मैडम।

बनई थी हमने एक सहेली,
अब तक है वो एक पहेली,
बड़ी बड़ी आंखों से देखती थी ऐसे,
संत छुपा हो उसके अन्दर जैसे।
इधर की बात उधर,उधर की इधर,
उड़ उड़ के बताती थी मानो चमकादार,
छुपाने को अपनी चतुरता,
पहनती थी वो भोलेपन का मुखौटा।

आने के बाद मुंबई,
नेता राजनेता देखे कई,
गली गली पूजा करवाते,
छुप छूप के लोगो को पिटवाते।
नोट खाके हो गए मोटे,
आमिर बन गए सोते सोते,
छुपाने को भ्रष्टाचार की आतंकता,
पहन लिया इन सबने सदाचार का मुखौटा।

कॉलेज में एक दोस्त बनाया,
कई तरीको से उसे हंसाया,
हर बार हंसके चुप हो जाता,
रोनी सूरत फिर बना लेता।
लकड़ी पे दीमक जैसे,
कोई चिंता खाती है उसे,
ढकने को अपनी चिंता,
पहन लिया उदासीनता का मुखौटा।

टीवी पे वास्तविक कार्यक्रम,
होंगे बीस कमस कम,
नाच,गान खेल प्रतियोगिता,
किस्मत खुल गई भाई जो जीता।
बात बे बात निर्णायक झल्ला जाते,
सरेआम सब आंसू बहते,
खींचने के लिए सबका ध्यान,
छल का मुखौटा लिया पहन महरबान कदरदान।

पर जिस मुखौटे की थी मुझे खोज,
वो दिखा मुझे उस रोज,
कॉलेज के द्वार पर खड़े चौकीदार भइया,
सदा खुश रहने का है उनका रवैया।
घर परिवार है दूर किसी गाँव में,
वो रहते है अकेले छोटी से छत के छाव में,
दुःख बहुत है पर दिखाई नही देता,
क्योंकि पहना है उन्होंने हँसी का मुखौटा।

चेहरे पे चेरा हर चेहरे पर मुखौटा,
कोई भी हो बड़ा या छोटा,
मेरी शोध है निरंतर,
सूचि में गिनती बढती रहेगी लगातार।
हर स्तिथि के लिए मेरे पास भी है एक मुखौटा,
चाहे हो वो सच्चा या खोता,
डर लगता है भीड़ में खो जाए न कही,
क्योंकि बिन मुखौटा आजकल पहचानता कोई नही.

3 comments:

Meghna said...

Hye......a psot aftah a long time!!! Nice to see u back....lovely!! DId u write it?? It's tough to write poetry in hindi!

Nalin Mehra said...

Dear Aritri,
It is not always that people get a chance to speak their heart, but when i read your blog, i realized u speak your heart through words and people like me read it and then they feel the same emotion, which u felt while writing all the stuff.

Your poems sands, martyr touched my heart, you know i also love to write peoms, couplets nd stuff, but i used to feel very scared in expressing my feelings, i used to think, people will make fun out of it, but when i read your blog, i realized, it feels so beautiful, when someone goes through your feelings thru ur words and poems...

All i wanna say is that ur a blessed writer, keep up the good work.......Take Care..

Nalin Mehra (The Lost Poet)

Ranjeet Pratap Singh said...

hey,
Its a good poem with great thoughts.

Not that I am a re-viewer or a critic or that I know too much of Hindi literature ( I am voracious reader though) but I would like to give a friendly suggestion.

Don't emphasize too much on the tuk (or the rhyme), it starts effecting the natural flow of the poem.